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श्री रघुवीर भक्त हितकारी ।
सुनि लीजै प्रभु अरज हमारी ॥ १ ॥
निशि दिन ध्यान धरै जो कोयी ।
ता सम भक्त और नहिँ होयी ॥ २ ॥
ध्यान धरे शिवजी मन माहीँ ।
ब्रह्मा इंद्र पार नहिँ पाहीँ ॥ ३ ॥
जय जय जय रघुनाथ कृपाला ।
सदा करो संतन प्रतिपाला ॥ ४ ॥
दूत तुम्हार वीर हनुमाना ।
जासु प्रभाव तिहूँ पुर जाना ॥ ५ ॥
तव भुज दंड प्रचंड कृपाला ।
रावण मारि सुरन प्रतिपाला ॥ ६ ॥
तुम अनाथ के नाथ गोसायीँ ।
दीनन के हो सदा सहायी ॥ ७ ॥
ब्रह्मादिक तव पार न पावैँ ।
सदा ईश तुम्हरो यश गावैँ ॥ ८ ॥
चारिउ वेद भरत हैँ साखी ।
तुम भक्तन की लज्जा राखी ॥ ९ ॥
गुण गावत शारद मन माहीँ ।
सुरपति ताको पार न पाहीँ ॥ १० ॥
नाम तुम्हार लेत जो कोयी ।
ता सम धन्य और नहिँ होयी ॥ ११ ॥
राम नाम है अपरंपारा ।
चारिउ वेदन जाहि पुकारा ॥ १२ ॥
गणपति नाम तुम्हारो लीन्हो ।
तिनको प्रथम पूज्य तुम कीन्हो ॥ १३ ॥
शेष रटत नित नाम तुम्हारा ।
महि को भार शीश पर धारा ॥ १४ ॥
फूल समान रहत सो भारा ।
पाव न कोऊ तुम्हरो पारा ॥ १५ ॥
भरत नाम तुम्हरो उर धारो ।
तासोँ कबहु न रण मेँ हारो ॥ १६ ॥
नाम शत्रुहन हृदय प्रकाशा ।
सुमिरत होत शत्रु कर नाशा ॥ १७ ॥
लखन तुम्हारे आज्ञाकारी ।
सदा करत संतन रखवारी ॥ १८ ॥
ताते रण जीते नहिँ कोयी ।
युद्ध जुरे यमहूँ किन होयी ॥ १९ ॥
महालक्ष्मी धर अवतारा ।
सब विधि करत पाप को छारा ॥ २० ॥
सीता नाम पुनीता गायो । [राम]
भुवनेश्वरी प्रभाव दिखायो ॥ २१ ॥
घट सोँ प्रकट भयी सो आयी ।
जाको देखत चंद्र लजायी ॥ २२ ॥
सो तुमरे नित पाँव पलोटत ।
नवोँ निद्धि चरणन मेँ लोटत ॥ २३ ॥
सिद्धि अठारह मंगळकारी ।
सो तुम पर जावै बलिहारी ॥ २४ ॥
औरहु जो अनेक प्रभुतायी ।
सो सीतापति तुमहिँ बनायी ॥ २५ ॥
इच्छा ते कोटिन संसारा ।
रचत न लागत पल की वारा ॥ २६ ॥
जो तुम्हरे चरणन चित लावै ।
ताकी मुक्ति अवसि हो जावै ॥ २७ ॥
जय जय जय प्रभु ज्योति स्वरूपा ।
निर्गुण ब्रह्म अखंड अनूपा ॥ २८ ॥
सत्य सत्य सत्यव्रत स्वामी ।
सत्य सनातन अंतर्यामी ॥ २९ ॥
सत्य भजन तुम्हरो जो गावै ।
सो निश्चय चारोँ फल पावै ॥ ३० ॥
सत्य शपथ गौरीपति कीन्हीँ ।
तुमने भक्तिहिँ सब सिद्धि दीन्हीँ ॥ ३१ ॥
सुनहु राम तुम तात हमारे ।
तुमहिँ भरत कुल पूज्य प्रचारे ॥ ३२ ॥
तुमहिँ देव कुल देव हमारे ।
तुम गुरु देव प्राण के प्यारे ॥ ३३ ॥
जो कुछ हो सो तुम ही राजा ।
जय जय जय प्रभु राखो लाजा ॥ ३४ ॥
राम आत्मा पोषण हारे ।
जय जय दशरथ राज दुलारे ॥ ३५ ॥
ज्ञान हृदय दो ज्ञान स्वरूपा ।
नमो नमो जय जगपति भूपा ॥ ३६ ॥
धन्य धन्य तुम धन्य प्रतापा ।
नाम तुम्हार हरत संतापा ॥ ३७ ॥
सत्य शुद्ध देवन मुख गाया ।
बजी दुंदुभी शंख बजाया ॥ ३८ ॥
सत्य सत्य तुम सत्य सनातन ।
तुम ही हो हमरे तन मन धन ॥ ३९ ॥
याको पाठ करे जो कोयी ।
ज्ञान प्रकट ताके उर होयी ॥ ४० ॥
आवागमन मिटै तिहि केरा ।
सत्य वचन माने शिव मेरा ॥ ४१ ॥
और आस मन मेँ जो होयी ।
मनवांछित फल पावे सोयी ॥ ४२ ॥
तीनहूँ काल ध्यान जो ल्यावै ।
तुलसी दल अरु फूल चढावै ॥ ४३ ॥
साग पत्र सो भोग लगावैँ ।
सो नर सकल सिद्धता पावैँ ॥ ४४ ॥
अंत समय रघुवरपुर जायी ।
जहाँ जन्म हरि भक्त कहायी ॥ ४५ ॥
श्री हरिदास कहै अरु गावै ।
सो बैकुंठ धाम को जावै ॥ ४६ ॥
– दोहा –
सात दिवस जो नेम कर,
पाठ करे चित लाय ।
हरिदास हरि कृपा से,
अवसि भक्ति को पाय ॥ ४७ ॥
राम चालीसा जो पढे,
राम चरण चित लाय ।
जो इच्छा मन मेँ करै,
सकल सिद्ध हो जाय ॥ ४८ ॥
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